किसी मेले का आँखों देखा दृश्य
किसी मेले का आँखों देखा दृश्य
“भारत की संस्कृति में सुन्दर, यदि मेलों का मेल न होता ।
तो निश्चय ही भारपूर्ण मानव जीवन भी खेल न होता ।।”
अथक परिश्रम करने के बाद व्यक्ति व्यक्तिगत रूप और समाज सामूहिक रूप से विश्राम और मनोरंजन चाहता है। इस बहाने से वह जीवन के कटु अनुभवों को कुछ क्षणों के लिये भूलने का प्रयास करता है। अपने पुराने मित्रों, परिचितों और सम्बन्धियों से मिलकर वह कुछ समय के लिये जीवन के अभिशापों को भुला देता है। वह अपने पूर्वजों के आदर्श संघर्ष और सफलता से प्रेरणा प्राप्त करता है, उनके बताये हुए मार्गों पर चलकर अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयास करता है। कभी वह भूली हुई धार्मिक भावनाओं को फिर से जागृत करने के लिये सामूहिक प्रयास एवं विचारों का आदान-प्रदान करता है। भारतीय मेलों का इन्हीं दृष्टिकोणों से विशेष महत्त्व है । प्रत्येक देश और प्रत्येक जाति में मेलों का ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक महत्त्व होता है। भारतवर्ष मेलों का देश है । यहाँ आये दिन किसी न किसी जाति और किसी न किसी धर्म का मेला लगता ही रहता है । मानव ने सभ्यता के संघर्ष में जब-जब सफलता प्राप्त की तब तब उसने उसकी प्रसन्नता में कोई विशेष मेला प्रारम्भ कर दिया । प्राचीन काल में मेलों के ही बहाने से यातायात की सुविधा के अभाव में एक-दूसरे से मिल लेते थे, विचारों का आदान-प्रदान करते थे, एक-दूसरे से धार्मिक प्रेरणा प्राप्त करते थे तथा अपने विश्राम के रिक्त समय को मनोरंजन में व्यतीत करते थे। मेलों के बहाने से वे जीवन की आवश्यक वस्तुयें भी आसानी से खरीद लेते थे । दूर नगरों में जाकर कौन अपने चार छः दिन नष्ट करे, इसी भावना से प्रत्येक ग्राम के आस-पास चार छः महीनों में कोई न कोई मेला लगा करता था। आज भी ग्रामीणों के जीवन में इन मेलों का विशेष महत्त्व है ।
रीक्षाफल सुनाने के पश्चात् कॉलेजों के कपाट पौने दो महीने के लिए बन्द हो चुके थे। मेरी सफलता पर माता-पिता को अभूतपूर्व प्रसन्नता हुई थी, तभी माता जी ने कह दिया था कि अबकी बार इसे दशहरे पर गंगा स्नान कराके लाऊँगी । यह सुनते ही मेरे हृदय में एक अपार हर्ष का समुद्र उमड़ पड़ा। उसी दिन से नित्य नवीन कल्पनायें मेरे मन में उठतीं, कभी मेले का दृश्य सामने आ जाता तो कभी गंगा में स्नान करने वाली असंख्य भीड़ का, नये-नये खेल, सिनेमा आदि की कल्पना करता, तो कभी सुन्दर-सुन्दर चाट खाने की, कभी-कभी गंगा की लहरों में तैरने की कल्पना से मन फूला न समाता । नित्य सोचता कि वह दिन कौन-सा होगा जब हम गंगा दशहरा का मेला देखने के लिए घर से बाहर निकलेंगे। उत्कण्ठा से भरे दिन मैंने बड़ी कठिनाई से व्यतीत किये। अब ज्येष्ठ शुक्ला दशमी के केवल चार दिन शेष थे, माता जी ने पिता जी से कह हो तो दिया कि अब चार दिन रह गये हैं, एक दिन पहले जाने पर भी धर्मशालायें पहले से इतनी भर जाती हैं कि उनमें पैर रखने तक की जगह नहीं मिलती। इसलिए कम से कम तीन दिन पहले चला जाये तो अधिक अच्छा हो। पिता जी ने स्वीकृति दे दी। फिर क्या था, माता जी ने बड़ी प्रसन्नता से कढ़ाई में घी डाला और रास्ते के लिए पूड़ियाँ उतारने लगीं। कुछ बेसन के लड्डुओं का भी प्रोग्राम बना, नमकीन मठरियाँ भी नाश्ते के लिये बनाई गईं। पिता जी ने कहा कि मेले के मौके पर गंगा पर भी शुद्ध सामान नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो दुगुने और तिगुने भावों पर, इसलिए शुद्ध घी और आटा यहीं से लेकर चला जाये। माता जी ने कहा कि इससे अच्छा और क्या हो सकता है। धोबी के यहाँ कपड़े गये हुए दस दिन हो चुके थे पर वह अभी तक धोकर नहीं लाया था मैने साइकिल उठाई और धोबी के यहाँ से कपड़े लाया । खुशी-खुशी में इतनी जल्दी गया था कि मेरी साइकिल कई जगह टकराते-टकराते बची। बिस्तर तैयार किये गये । अब मुझे केवल यह प्रतीक्षा थी कि कब रिक्शा आये और हमें बैठाकर स्टेशन ले चले ।
अलीगढ़ के निवासी प्रायः गंगा स्नान के लिए राजघाट जाया करते थे। बड़ा ही सुरम्य स्थान है, धर्मशालायें भी बहुत सी हैं और गंगा भी अपने पूर्ण प्रवाह में काफी मैदान घेरती हुई बहती है। अलीगढ़ से बरेली जाने वाली रेलगाड़ी राजघाट के यात्रियों को बीच में उतार देती है। रेल रात में जाती थी इसलिए निश्चय यही हुआ कि मोटर से ही चला जाये । मोटर के अड्डे पर पहुँचने पर देखा कि हजारों ग्रामीण यात्रियों की भीड़ लगी हुई थी । कोई सुबह से आया बैठा था, तो कोई रात में ही आ गया था, परन्तु बेचारों को मोटर में जगह नहीं मिल पाई थी । मोटरें हर पन्द्रह मिनट के बाद छूट रही थीं। हम लोगों ने भी अपना सामान एक तरफ रख लिया। सहसा पिता जी को एक परिचित व्यक्ति मिले और पूछा कि यहाँ कैसे ? पिता जी ने यात्रा का उद्देश्य बताया। उन सज्जन की भी एक मोटर अलीगढ़ से राजघाट चलती थी । उन्होंने तुरन्त टिकट लाकर दे दिये और हम लोग गाड़ी में जा बैठे। मोटर के भरने में देर न लगी, ड्राइवर ने हॉर्न दिया और म्ोटर चल दी। मैं पहले भी अनेकों बार मोटर में बैठा था, परन्तु आज मोटर की चाल कुछ अनोखी थी | बहुत धीरे चल रही थी, मिनट मिनट पर ड्राइवर हॉर्न बजा रहा था । पिताजी के पूछने पर मालूम हुआ कि दुर्घटना से बचने के लिए धीरे-धीरे चला रहा है। मार्ग के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने के लिए मैंने खिड़की से अपना सिर बाहर निकाल रक्खा था। सड़क का दृश्य बड़ा ही मनोहर था | सड़क के दोनों ओर बहुत से यात्री पैदल चल रहे थे । जाने वालों में स्त्रियों की संख्या अधिक थी। वे दस-दस और आठ-आठ की टोलियों में भजन गाती हुई जा रही थीं। किसी का बच्चा कन्धे पर बैठा था, तो किसी का बगल में, ज्यादा संख्या बिना बच्चों वाली महिलाओं की थी। वे बेचारी जल्दी पहुँचने के विचार से अपने-अपने घरों से बहुत जल्द चल दीं थीं। बहुत से लोग साइकिलों पर थे, जिन्होंने कैरियरों पर अपने-अपने बिस्तर और कपड़े बाँध रक्खे थे। जब तक सड़क अच्छी थी, मोटर आराम से चलती रही, परन्तु जैसे ही कुछ गड्ढेदार सड़क आई हम लोग उछलने लगे, हमारे सिर बार-बार मोटर की छत से जाकर टकराते । मोटर में बैठे हुए बच्चों और औरतों को इस कूदने में बड़ी हँसी आ रही थी, सारी गाड़ी का वातावरण मनोविनोदपूर्ण था।
आज गंगा दशहरा था। प्रातः काल चार बजे से ही गंगा के दूर तक के तट भीड़ से भरे हुए दिखाई पड़ रहे थे। किनारों पर पण्डों के तख्त बिछे हुए थे, जिन पर यात्री अपना सामान रखते, स्नान करते और फिर पण्डे से तिलक लगवाकर उसे दक्षिणा दे रहे थे । नहा-धोकर लोग मेले की ओर जा रहे थे। चारों ओर बाजार भरा हुआ दिखाई दे रहा था । मनचले नौजवान धक्केबाजी में ही आनन्द ले रहे थे, बेचारे शरीफ लोग भीड़ से बचकर निकलने की कोशिश कर रहे थे। खोमचे वालों की तरह-तरह की आवाज, खेल तमाशे वालों के गाने, रिकार्डों तथा चरखे वालों की चूँ-चूँ ने सारा वातावरण कोलाहलपूर्ण बना रक्खा था। एक तरफ पूड़ी-कचौरी वालों की दुकानें थीं । कहीं पूड़ियाँ सिक रही थीं, तो कहीं गरम-गरम जलेबियाँ बहार दे रही थीं। कोई बरफी खा रहा था, कोई लड्डू, कोई कलाकन्द का भोग लगा रहा था, तो कोई कचौरी पर आलू का शाक डलवा रहा था। हलवाइयों की दुकानों के भीतर चटाइयों पर बैठने का स्थान भी न मिल पा रहा था। एक ओर बिसातियों की दुकानें थीं, जिन पर गाँव की स्त्रियों की बेहद भीड़ थी। कोई कंघा ले रही थी तो कोई चुटिया। नई फैशन की लड़कियाँ रिबन खरीद रही थीं। कोई शीशे में अपना मुँह देखकर उसका मोल कर रही थी। किसी को माथे की बिन्दी पसन्द आई थी, तो किसी को नाखूनों की पालिश। बच्चे अपनी माताओं से सीटी, गेंद और पैसे रखने का बटुआ लेने के लिये मचल रहे थे। कोई खुशबूदार साबुन को नाक से लगाकर अपने पति से खरीदने का आग्रह कर रही थी । कुछ कपड़े वालों की भी दुकानें बाहर से आई थीं। जो लोग अपने साथ पैसा लाये थे वे लोग कपड़े की दुकानों पर जमे हुए थे। किसी ने अपनी पत्नी को साड़ी दिलवाई थी तो किसी ने ब्लाउज का कपड़ा, कोई-कोई बेचारी केवल देखकर ही अपना मन मारकर आगे बढ़ जाती थी । कोई अपने कुर्ते का कपड़ा देख रहा था, तो कोई कमीज का, कोई-कोई दो रुपये का अंगोछा ही खरीदकर कन्धे पर डाल लेता था । बच्चों और स्त्रियों की सबसे ज्यादा भीड़ मैंने चाट और खोमचे वालों के यहाँ देखी। कोई दही-बड़े खा रहा था, तो कोई सोठ की पकोड़ियाँ । कोई आलू की टिकिया खा रहा था, तो कई पानी के बताशे । कुछ किताबों की भी दुकानें थीं, जिन पर ग्रामीण साहित्य, यानि रसिया और ढोले की छोटी-छोटी किताबें गाँव वाले खूब खरीद रहे थे । किताबें खरीदकर वहीं उनमें से गाना शुरू कर देते थे । कुछ घूमने वाले, बाँसुरी और फुकब बेच रहे थे। कहीं काठ की मालाएँ बिक रही थीं, कुछ दुकानें ऐसी थीं, जिन पर केवल गंगा जी का प्रसाद बिक रहा था । जो भी गंगा स्नान करके आता वह सफेद चिनौरियों का प्रसाद जरूर खरीदता । बच्चे अपनी माताओं से चरखे में झूलने के लिये मचल रहे थे और वे मना कर रही थीं । कहीं भजनोपदेश हो रहे थे तो कहीं धार्मिक सभाएँ ।
सहसा मेले में एक हाहाकार – सा मचा, सब लोग गंगा की ओर भागने लगे । मैं भीड़ के साथ हो लिया। जाकर देखा कि एक स्त्री गंगा के किनारे पछाड़ खा-खाकर रो रही है, उसका पति और दो छोटे-छोटे पुत्र गंगा जी में डूब गये थे। पहले दोनों भाई डूबे थे । उनको निकालने के लिये उनका पिता बिना किसी विचार के गंगा की भंवरों में घुस गया था, फिर वह भी नहीं लौटा। गोताखोरों ने गोते लगाये, नाव पर चढ़कर जाल डाले गये परन्तु सब व्यर्थ रहा । आधा घण्टा पहले की सधवा अब विधवा बन चुकी थी और कुछ समय पूर्व की माता अब पुत्रहीन हो चुकी थी। केवल वह ही नहीं रो रही थी बल्कि जो भी उसे देख रहा था वह भी रो रहा था । वह दृश्य देखकर मेरी मानसिक खिन्नता का ठिकाना न रहा। मेले का सारा आनन्द न जाने एकदम कहाँ चला गया और गंगा की क्रूर लहरों पर तथा बच्चों के माता-पिता की असावधानी पर क्रोध आने लगा। बेचारे मल्लाहों ने भरपूर प्रयास किया पर उनका प्रयास सफल सिद्ध न हो सका । बड़े दुखी मन से हम लोग अपनी धर्मशाला को लौट आये। इस प्रकार चार-पाँच दिन मेले का आनन्द लिया । छठे दिन हम लोग घर आ चुके थे।
भारतीय मेलों में भारत की प्राचीन आत्मा आज भी दिखाई पड़ती है। ये मेले हमारी सभ्यता, संस्कृति और धार्मिक भावनाओं के प्रेरणा स्रोत हैं और अतीत के इतिहास को आज भी हमारे नेत्रों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। परस्पर मिलाने और एक-दूसरे को समीप लाने में ये मेले बहुत सहायक सिद्ध होते हैं ।
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