आपके प्रिय निबन्धकार की शैलीगत विशेषतायें अथवा मेरा प्रिय लेखक- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अथवा हिन्दी में वैज्ञानिक समालोचना के जन्मदाता
आपके प्रिय निबन्धकार की शैलीगत विशेषतायें अथवा मेरा प्रिय लेखक- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अथवा हिन्दी में वैज्ञानिक समालोचना के जन्मदाता
मेरे सबसे प्रिय लेखक, निबन्धकार एवं हिन्दी में वैज्ञानिक समालोचना के जन्मदाता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी हैं। शुक्ल जी हिन्दी के अद्भुत समालोचक, उच्चकोटि के निबन्धकार तथा सहृदय एवं भावुक कवि थे। उनकी जैसी मौलिक विवेचना शक्ति, लेखकों के मनोभावों का सूक्ष्म निरीक्षण तथा गुण-दोषों के मूल्यांकन की अपूर्व क्षमता आज तक के समालोचकों एवं निबन्धकारों में दृष्टिगोचर नहीं होती । हिन्दी गद्य साहित्य में जो स्थान शुक्त जी को प्राप्त है, वह स्थान अन्य किसी लेखक को नहीं मिल पाया।
शुक्ल जी का जन्म सम्वत् १९४१ में बस्ती जिले के अगोना ग्राम में हुआ था । शुक्ल जी के पिता का नाम चन्द्रबली था, जो सुपरवाइजर कानूनगो थे । हम्मीरपुर से स्थानान्तरित होकर जब ये राठी ग्राम में पहुँचे तब शुक्ल जी की शिक्षा का श्रीगणेश हुआ । घर पर संस्कृत का अध्ययन कराया जाता था और स्थानीय मिडिल स्कूल में उर्दू और अंग्रेजी का । लन्दन मिशन स्कूल से हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के पश्चात् शुक्ल जी इण्टर में पढ़ने के लिये प्रयाग आये। पढ़ना प्रारम्भ किया। गणित में कमजोर होने के कारण परीक्षा में सफल न हो सके। इसके पश्चात् इन्होंने एक अंग्रेजी ऑफिस में बीस रुपये मासिक की क्लर्की कर ली । परन्तु उनकी स्वाभिमानी प्रकृति को यह कार्य रुचिकर न था फलस्वरूप उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर हो गए। इसी बीच में उनके कई साहित्यिक निबन्ध “सरस्वती” में प्रकाशित हुए तथा साहित्य प्रेमियों द्वारा सम्मानित हुए । शुक्ल जी की साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित होकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने उन्हें “हिन्दी शब्द सागर” के सम्पादन का कार्यभार सौपा। इसके पश्चात् शुक्ल जी की नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हो गई। यह आलोचक-सम्राट सम्वत् १९९७ में हिन्दी संसार से चल बसा ।
शुक्ल जी ने हमें सर्वथा नवीन एवम् मौलिक ग्रन्थ दिए हैं। चिन्तामणि, विचार वीथी, काव्य में रहस्यवाद, आपके उच्चकोटि के निबन्ध संग्रह हैं। “गोस्वामी तुलसीदास”, सूर तथा जायसी की समालोचनायें और ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ शुक्ल जी की अमर कृतियाँ हैं । “बुद्ध चरित” तथा “अभिमन्यु वध” आपके काव्य-ग्रन्थ हैं। इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने कुछ पुस्तकों के हिन्दी ने में अनुवाद भी किये ।
शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास, तुलसीदास, सूर एवं जायसी की समालोचना के रूप में जो कुछ लिखा है, वह उस क्षेत्र में लगभग अन्तिम ही समझा जाता है । यद्यपि उनके बाद भी कुछ प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हुए हैं फिर भी उनकी प्रतिभा को कोई नुकसान नहीं पहुँच पाया। शुक्ल जी की आलोचना उनके चिन्तनशील मस्तिष्क की देन होते हुए भी हृदय की सरसता लिये है । शुक्ल जी के व्यक्तित्व के विषय में कहा जाता है कि वे बादाम की भाँति थे, ऊपर से कठोर, शुष्क, नीरस, परन्तु हृदय गुणग्राही तथा सरल था । ठीक इसी व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप उनकी शैली पर है। हिन्दी में प्रथम बार शुक्ल जी ने वैज्ञानिक विश्लेषण शैली को अपनाया। एक सफल वैज्ञानिक की भाँति उन्होंने प्रत्येक विषय को बड़ी गहराई के साथ देखा और बहुत दूर तक उसका विश्लेषण किया। शुक्ल जी नें निबन्धों की गहनता से थक कर बीच-बीच में हास्य और व्यंग्य का रस भी छिटका दिया है । गहन एवं गम्भीर विचारों में उलझे हुए पाठक के मस्तिष्क के लिये हास्य और व्यंग्य की फुलझड़ियाँ मरुस्थल में मरुद्यान की भाँति प्रतीत होती हैं ।
शुक्ल जी की भाषा, क्या निबन्धों में क्या समालोचनात्मक रचनाओं में और क्या काव्य में सभी जगह अत्यन्त परिष्कृत, परिमार्जित और साहित्यिक है। उसमें जो गम्भीरता, संयम और सौष्ठव है वह अन्य किसी लेखक या समालोचक में दुर्लभ है । शुक्ल जी की भाषा सब प्रकार के भावों के प्रतिपादन में सर्वथा समर्थ है, चाहे वे भाव कितने ही सूक्ष्म एवं जटिल हों । उनका शब्द और वाक्य-विन्यास व्यवस्थित है। शुक्ल जी ने भाषा में शब्दाडम्बर अथवा चमत्कार प्रदर्शन की ओर ध्यान नहीं दिया, अपितु नपी-तुली भाषा में ही भावों की अभिव्यक्ति उनकी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता है, यही कारण है कि शुक्ल जी की भाषा में शैथिल्य लेशमात्र भी नहीं मिलता ।
शुक्ल जी की भाषा के शब्द उनके भावों के प्रतिनिधि हैं। उनके वाक्य उनके विचारों के प्रतीक हैं। विचार पूर्णत: शृंखलाबद्ध हैं। शब्द द्वारा प्रत्येक विचार एवं भाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भावों के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ भाषा में भी उतार-चढ़ाव है । शुक्ल जी ने जहाँ दुरुह भावों का प्रतिपादन किया है, वहाँ उनकी भाषा संस्कृत-प्रधान एवं क्लिष्ट है। यह विद्वानों की भाषा है, साधारण जन-समाज की नहीं । फिर भी शुक्ल जी ने अपनी भाषा को सरल एवं बोधगम्य बनाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले उर्दू और अंग्रेजी के शब्द भी अपना लिये हैं। मुहावरों और कहावतों का भी अच्छा प्रयोग किया है। शुक्ल जी की भाषा कहीं भी उलझी हुई प्रतीत नहीं होती ।
शुक्ल जी जहाँ एक ओर गम्भीर विचारक थे, वहाँ उनमें छिपी हुई भावुकता भी थी । शुक्ल जी का प्रकृति के प्रति विशेष प्रेम था । यह प्रेम उनकी रचनाओं में कृत्रिम एवम् काल्पनिक वर्णन के रूप में नहीं अपितु वास्तविक रूप में मिलता है। शुक्ल जी काव्य-शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। उन्होंने रस और अलंकारों का सूक्ष्म अध्ययन किया था, इसीलिए उनकी रचनाओं में स्थान-स्थान पर अलंकारों का प्रयोग स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जहाँ वे देखते हैं कि विषय इतना कठिन है कि स्पष्ट प्रतिपादन कर लेने पर भी पाठक ग्रहण करने में असमर्थ होंगे, वहाँ अन्त में सारी बात लिखने के बाद “कहने का तात्पर्य यह है” लिखकर दुबारा समझाने का प्रयत्न करते ।
शुक्ल जी के वाक्य कहीं-कहीं पाणिनि के सूत्र जैसे प्रतीत होते हैं। उनकी शैली की यह प्रमुख विशेषता है कि उन्होंने सदैव थोड़े में बहुत कहा है। उदाहरणस्वरूप ” भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है ।” “बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है |” इत्यादि ।
शुक्ल जी की शैली को हम तीन भागों में विभाजित करते हैं – (१) आलोचनात्मक गवेषणात्मक शैली और (३) भावात्मक शैली । आलोचनात्मक शैली शुक्ल जी के चिन्तनशील मस्तिष्क की देन है । इस शैली की भाषा संस्कृत प्रधान है, वाक्य छोटे और गम्भीर हैं। इस शैली में उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप गृष्टिगोचर होती है। गवेषणात्मक शैली में भावों की दुरूहता के साथ-साथ भाषा अपेक्षाकृत जटिल एवम् गम्भीर है। इस शैली में उनका दार्शनिक रूप प्रत्यक्ष परिलक्षित होता है। भावात्मक शैली में शुक्ल जी ने उत्साह, करुणा, घृणा जैसे मनोदशा सम्बन्धी निबन्ध लिखे हैं । इस शैली की भाषा व्यावहारिक, विचार शृंखलाबद्ध तथा वाक्य-विन्यास व्यवस्थित है ।
हिन्दी साहित्य में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्थान अद्वितीय है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता थे, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उनका संस्कार किया था । शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य का यथोचित मूल्यांकन किया। उन्होंने साहित्य के जिस अंग पर भी लिखा अधिकारपूर्वकं लिखा। उनकी प्रत्येक रचना में उनके गम्भीर व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं । वे एक अस्त्राधारण साहित्यकार थे । हिन्दी साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा ।
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