अहिंसा और विश्वशान्ति
अहिंसा और विश्वशान्ति
पिछले दो महायुद्धों में भयानक नरसंहार को देखकर आज के विश्व का मानव युद्ध की विभीषिकाओं से संत्रस्त होकर अपनी रक्षा के लिए शरण ढूँढ रहा है। बड़े-बड़े राष्ट्रों के कर्णधार युद्ध न करने के लिए योजनाएँ बना रहे हैं और उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयास कर रहे हैं, परन्तु बीच-बीच में कुछ ऐसी चिनगारियाँ फूट निकलती हैं, जिससे युद्ध की सम्भावना फिर से वृद्धि पा जाती है और युद्ध-विराम योजनाएँ असफल दृष्टिगोचर होने लगती हैं। आज विश्व उसी स्थिति में है, जिस स्थिति में महाराजा अशोक कलिंग विजय के उपरान्त थे। अशोक ने मगंध साम्राज्य की पूर्णता के लिए कलिंग पर आक्रमण किया था । कलिंगवासी लड़े भी परन्तु विजय प्राप्त न कर सके। कलिंग पर विजय प्राप्त तो हो गई, परन्तु अशोक का हृदय चीत्कार कर उठा, उसके ऊपर अहिंसा और विश्वशान्ति खिन्नता छा गई । कलिंग-विजय में कितना भीषण नरसंहार हुआ, कितने घर वीरान हुए, कितनी सधवा माँ-बहिनों ने अपनी माँग का सिन्दूर सदैव – सदैव के लिए पोंछ डाला, बालक अनाथ हुए। देश की हरी-भरी भूमि श्मशान जैसी भयानक दिखाई पड़ती थी । सम्राट अशोक की आँखों के आगे हिंसा की व्यर्थता नाचने लगी। उस दिन से अशोक हिंसा के स्थान पर अहिंसा का उपासक बन गया। उसने प्रतिज्ञा की कि वह कभी शस्त्र धारण नहीं करेगा, संसार को हिंसा के बजाय प्रेम, करुणा और अहिंसा से जीतेगा । इस घटना के पश्चात् अशोक ने जो विजय प्राप्त की वह आज भी भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। हिटलर और नैपोलियन जैसे वीर भी इतनी महान् विजय प्राप्त न कर सके, जितनी अशोक ने की। चीन, जापान, जावा, बाली, स्याम और सिंहल आदि देशों में आज भी बौद्ध धर्म छाया हुआ है। यह अशोक के प्रेम-अभियान का ही परिणाम है।
भगवान् बुद्ध का सबसे बड़ा धर्म अहिंसा ही था। प्रेम और करुणा ही उनके सबसे बड़े मन्त्र थे । मन, वाणी और कर्म से किसी भी प्राणी को कोई कष्ट न देना ही अहिंसा का मूल रूप है। अशोक ने जीवमात्र को सुख पहुँचाने के लिए जितने भी उपाय सम्भव हो सकते थे, किए । अहिंसा और शान्ति का सन्देश दूर-दूर देशों में प्रसारित करने के लिए उसने सुशील और सच्चरित्र विद्वानों को भेजा। अपने राजकुमार महेन्द्र और राजकुमारी संघमित्रा को भिक्षु और भिक्षुणी बनाकर बौद्ध धर्म की शिक्षा के प्रचार के लिये सिंहल द्वीप भेजा था । आधुनिक युग में महात्मा गाँधी ने भगवान् बुद्ध के सत्य, प्रेम और अहिंसा का प्रचार किया, जिससे विश्व में शान्ति और सद्भावना स्थापित हो सके I
एक समय होता था जब यह कहा जाता था कि युद्ध के बहुत लाभ होते हैं। प्रथम तो यही माना जाता था कि युद्ध में मर जाने से सीधा स्वर्ग प्राप्त होता है जैसा कि इस श्लोक में कहा गया है –
“हत्रो वा प्रप्स्यसि स्वर्ग, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।”
अर्थात् (कष्टात) त्रायते (रक्ष्यतें) इति क्षत्रियो । इस परिभाषा के अनुसार अपने वास्तविक अर्थों में क्षत्रिय युद्ध करके प्रजा की आततायियों से रक्षा करता था । इसीलिए इसे क्षात्र धर्म कहा जाता था। भारतीय क्षात्र धर्म रक्षा प्रधान होता था । हमने पहले किसी पर आक्रमण नहीं किया, परन्तु विदेशी विचारक आक्रमण – प्रधान क्षात्र धर्म को अधिक श्रेष्ठ मानते थे । हीगल और नित्शे जैसे विद्वानों ने युद्ध को विकासवाद का जन्म माना है। युद्ध में अशक्त, अनुपयुक्त और मूर्ख समाप्त हो जाते हैं और अधिकतम उपयुक्त प्राणी ही विजयी हो पाते हैं। इनका विचार है कि जब तक युद्ध नहीं होता तब तक अच्छे और बुरे, मूर्ख और विद्वान असमर्थ और समर्थ सभी प्रकार के प्राणी सुख से जीवित रहते हैं, किसी को भी उन्नति करने की प्रेरणा नहीं होती, परन्तु जब एक बार युद्ध प्रारम्भ हो जाता है, तब असमर्थ और अनुपयुक्त प्राणी समाप्त हो जाते हैं और श्रेष्ठ प्राणियों की सन्तानें अपनी वंश वृद्धि करती हैं। इनका विचार है कि युद्ध में अन्याय भी समाप्त होता जाता है। जो अन्यायी समय पाकर अपने अधिकार जमा लेते हैं, वे शान्ति के समय उन्हें किसी प्रकार सुरक्षित रख लेते हैं, परन्तु युद्ध प्रारम्भ होते ही अन्याय अधिक समय तक स्थायी नहीं रह पाता I हो सकता है कि यह बात किसी काल में सत्य रही हो, परन्तु आजकल तो युद्ध में सशक्त और बलिष्ठ नवयुवक ही युद्ध की अग्नि में स्वाहा होते हैं । अशक्त, असमर्थ और अनुपयुक्त तो घरों में बैठे रह जाते हैं । विदेशियों की भाँति भारत में भी राजे-महाराजे अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए युद्ध का आह्वान किया करते थे। कोई दिग्विजय के लिए निकलता था, तो कोई राजसूय यज्ञ करने में व्यस्त होता था, परन्तु ये सब पुरानी बातें हैं, तब न इतने वैज्ञानिक प्रयोग थे और न विनाशकारी युद्ध |
आज का युद्ध सम्पूर्ण मानव सभ्यता और समाज का विनाश कर देगा । इसीलिए विश्व में सभी राष्ट्र एक स्वर से शान्ति की याचना कर रहे हैं। वे देख चुके हैं पिछले दोनों विश्व युद्धों में धन, जन और शक्ति की कितनी महान् क्षति हुई थी। पिछले द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के दो प्रमुख नगर हिरोशिमा और नागासाकी इस महान् विध्वंस के साक्षी हैं। आज का युद्ध और विज्ञान मानव विकास के साधन न बनकर विनाश के साधन बने हुए हैं। पिछले दो विश्व युद्ध तक तो केवल अणु बमों का ही आविष्कार हुआ था, परन्तु अब तो रूसी और अमरीकी वैज्ञानिकों ने उससे भी कई गुना अधिक विध्वंसकारी हाइड्रोजन बम का निर्माण कर लिया है। अब यह स्थिति है कि यदि युद्ध का सभी राष्ट्रों ने एकदम बहिष्कार न किया तो परिणाम इतना भयंकर होगा कि विजित के साथ-साथ विजेता भी सर्वनाश की आँधी में उड़ जाएगा। इसलिए विश्व के सभी राष्ट्र किसी न किसी रूप में युद्ध विराम की योजनायें बना रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संगठन तथा बांडुंग सम्मेलन में एशिया तथा अफ्रीका के देशों का जो सम्मेलन हुआ उसका लक्ष्य यही था कि विभिन्न देशों के मध्य तनाव कम हो और युद्ध की भावी आशंकाओं को रोका जाये। विश्व में शान्ति स्थापित करने के लिए चीन के तत्कालीन प्रधानमन्त्री चाउ एन लाई तथा भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं० नेहरू ने पंचशील को जन्म दिया, जिसकी प्रतिष्ठा राजनीतिक शक्ति तथा सिद्धान्त के रूप में बांडुंग सम्मेलन के उन्तीस राष्ट्रों की स्वीकृति द्वारा हुई। पंचशील के सिद्धान्तों में सर्वप्रथम ‘आक्रमण न करना’ है। आक्रमण न करने की रूपान्तर अहिंसा ही होता है। महात्मा बुद्ध ने पंचशील के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। उनके सिद्धान्त थे –
१. पाणतिपाता वेरमणी सिक्खापदंशमादियामि
२. मुसादामां वेरमणी सिक्खापदं समादियामि
३. अदिन्नावागा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि
४. मामेसु मिच्छेचारा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि
५. सुरामेरथयज्ज पमाट्ठाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि
इनमें से पहले शील का अर्थ है कि मैं अहिंसा की शिक्षा ग्रहण करता हूँ । इसी प्रकार महात्मा बुद्ध और पंडित नेहरू दोनों के पंचशील की यही पुकार थी कि संसार में अहिंसा होनी चाहिए, तभी विश्व-शान्ति सम्भव है। महात्मा बुद्ध का पंचशील शक्ति को लक्ष्य बनाता था और दूसरा विभिन्न राष्ट्रों को लक्ष्य करके उद्भावित है।
यदि हम पिछले युद्धों की पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करें तो हमें निःसन्देह यह विदित हो जायेगा कि युद्ध के मूलभूत कारण क्या हैं। विचार-विमर्श के पश्चात् इसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि पूँजीवाद, वर्ण-भेद, जाति-भेद, साम्राज्यवाद आदि विचारधारायें ही युद्ध की अग्नि को भड़काती हैं। मानव की स्वार्थलोलुपता और शोषण की प्रवृत्ति उसे युद्ध के लिए प्रोत्साहित करती है ।
धरातल से युद्ध की विभीषिका को सदा-सदा के लिए समाप्त करने के लिए गाँधी जी ने विश्व को अहिंसा रूपी अस्त्र प्रदान किया। गाँधी जी कहा करते थे कि “प्रेम और अहिंसा द्वारा विश्व के कठोर से कठोर हृदय को भी कोमल बनाया जा सकता है।” उन्होंने इन सिद्धान्तों का परीक्षण भी किया और ये नितान्त सफल सिद्ध हुए। हिंसा से हिंसा बढ़ती है, घृणा, घृणा को जन्म देती है और प्रेम से प्रेम की अभिवृद्धि होती है इसलिए प्रत्येक राष्ट्र पारस्परिक द्वेष-भाव के स्थान पर प्रेम की भावना जाग्रत करे । विश्वबन्धुत्व और अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि किए बिना शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । संयुक्त राष्ट्र संघ ने कोरिया और मिस्र युद्ध को रोककर विश्व शान्ति को भंग होने से बचाया | ईराक में क्रान्ति द्वारा प्रजातन्त्र की स्थापना की गई । साम्राज्यवादी राष्ट्र ब्रिटेन और अमेरिका ने इसका विरोध किया और अपनी सेनायें लेबनान और जोर्डन में भेज दीं । विश्व-शान्ति तृतीय विश्व युद्ध के रूप में भंग होने वाली थी, परन्तु पं० नेहरू और रूस के तत्कालीन प्रधानमन्त्री खुश्चेव ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता से अहिंसा के द्वारा युद्ध रोकने का पूर्ण प्रयास किया और उन्हें अपने प्रयासों से पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई। पंचशील और अहिंसा के सिद्धान्तों पर ही लगभग दो दशकों के अन्तराल के बाद भारत सरकार के विदेश मन्त्री ने १२ फरवरी, १९७८ से २० फरवरी, १९७९ तक चीन यात्रा करके पारस्परिक सीमा विवादों को स्नेह और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में सुलझाने के प्रयत्नों का सूत्रपात किया ।
१७ फरवरी, ७९ को सहसा चीन ने वियतनाम पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण २ मार्च, ७९ तक रहा । इस बीच भारत ने अहिंसा के आधार पर विश्व शान्ति स्थापित करने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में २५ फरवरी, ७९ को शान्तिपूर्वक आपसी मतभेदों को दूर करने का प्रस्ताव रक्खा | इस प्रकार अहिंसा से विश्व शान्ति के मार्ग को प्रशस्त किया। इससे पूर्व कम्पूचिया पर वियतनाम द्वारा आक्रामक कार्यवाही के समय भी अहिंसा और पारस्परिक सौहार्द्र का मार्ग ही खोजा गया था ।
अत: यह निश्चित है कि बिना प्रेम और अहिंसा के विश्व में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । शान्ति के अभाव में मानव जाति का विकास सम्भव नहीं, विनाश सम्भव है, क्योंकि समय-समय पर युद्ध की चिनगारियों का विस्फोट कहीं न कहीं होता ही रहता है। प्रत्येक राष्ट्र का स्वर्णिम युग वही कहा जाता है जबकि वहाँ पूर्ण शान्ति और सुख रहा है । शान्ति काल में ही उत्कृष्ट कला-कौशल और श्रेष्ठ साहित्य का सृजन सम्भव होता है, उत्तमोत्तम रचनात्मक कार्य किये जाते हैं। भौतिक दृष्टि से व्यापार और कृषि की उन्नति भी शान्ति काल में ही सम्भव होती है । अतः यदि विश्व का कल्याण चाहते हैं, तो हमें युद्ध का बहिष्कार करना ही होगा, अहिंसा और प्रेम की भावना से विश्व में शान्ति स्थापित करनी होगी, तभी विश्व में एक सुखमय एवं शान्तिमय राज्यं की स्थापना सम्भव होगी ।
महात्मा गाँधी ने भारतवर्ष में अहिंसा का प्रयोग किया । वे अहिंसा के सच्चे पुजारी थे। उन्होंने अपने प्राणघातक तक को भी क्षमादान दिया था। भारतवर्ष आज उन्हीं के पद चिन्हों पर चल रहा है। विश्व भी यदि उनके बताये मार्ग पर चला तो अवश्य ही वह महायुद्धों की विभीषिकाओं से अपना त्राण कर सकता है अन्यथा तृतीय महायुद्ध विश्व के समस्त राष्ट्रों का समरस्थल में आह्वान कर रहा है।
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