राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र निर्माण
राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र निर्माण
“जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सी बीति बहार ।”
जिन दिनों में भारत में एकात्मकता थी उन दिनों भारत का विश्व पर शक्ति में शिक्षा में और शान्ति में एक छत्र आधिपत्य था । हम महान् थे ! और हमारा राष्ट्र महान् था। हमारी कथायें कहकर और सुनकर हमारे आदर्शों से लोग शिक्षा लिया करते थे । हमारा एक राष्ट्र था, एक राष्ट्रीय ध्वज था, एक भाषा थी और एक राष्ट्रीय विचारधारा थी, परन्तु जब से वह एकता अनेकता में छिन्न-भिन्न हो गई, तभी से हमें वे दुर्दिन देखने पड़े जिनकी आज हम कल्पनायें भी नहीं कर सकते। हमें पराधीन और पदाक्रान्ता होना पड़ा, अपने धर्म और संस्कृति पर कुठाराघात सहने पड़े। रोटियाँ, बेटियाँ छिनीं, मान-मर्यादायें लुटीं, हमारा राष्ट्रीय गौरव ध्वस्त कर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि हमारा राष्ट्रीय जीवन जर्जर हो गया, हमारी सूत्र-बद्ध सामूहिक शक्ति सदैव-सदैव के लिए, समाप्त हो गई और हम शताब्दियों तक के लिए परतन्त्रता के पाश में इस प्रकार बाँध लिए गये कि उसमें से छूटने की कल्पना संदिग्ध होने लगी थी।
आज हमें उसी अनिवार्य आवश्यकता का फिर से भयानक रूप अनुभव हो रहा है। एक सहस्र वर्ष की परतन्त्रता के बाद बड़े भाग्य से तो हमें यह समय देखने को मिला है। आज हम कह सकते हैं कि हम पूर्ण स्वतन्त्र हैं। इस आत्म-गौरव को प्राप्त करने के लिए हमें कितना मूल्य चुकाना पड़ा, कितने बलिदान और कितनी यातनायें सहनी पड़ीं, हमारी कितनी पीढ़ियाँ गुलामी में पैदा हुई और गुमसुम समाप्त हो गईं। हमारी सभ्यता और संस्कृति ने दुर्दिनों के कितने भयानक थपेड़े सहे और फिर भी साँस लेती रही। सैकड़ों वर्षों की अनन्त साधनाओं और असंख्य बलिदानों के बाद जो अमूल्य शेष हमें प्राप्त हुआ है, उसको आपसी फूट के कारण हम उसी तरह बरबाद करने में लग गये हैं, जैसे बन्दर किसी रत्न-माला को या गधा चन्दन के भार को। क्योंकि न बन्दर रत्नों की महार्ध्यता से परिचित है और गधा चन्दन के गुणों से, वह तो उसे केवल लकड़ियों का बोझ मात्र समझे हुए है, कहीं भी पलट कर आराम से रेत में लेट लगा लेगा । “यथा खरश्चन्दन भारवाही, भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य” कहने का तात्पर्य यह है कि धीरे-धीरे पारस्परिक फूट के कारण विनाश के उसी कगार की ओर बढ़ते जा रहे हैं जहाँ हमें कोई एक धक्का दे सकता है और हम उसी स्थिति में फिर फंस सकते हैं, जो आज से ५० वर्ष पहले थी । अतः आज राष्ट्रीय एकता की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी जीवन के लिये रोटी की ।
राष्ट्र की सार्वभौमिकता, अखण्डता और समृद्धि के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि देश राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत हो । देश के हित-अहित एवं मान-अपमान का प्रत्येक देशवासी चिन्तन और मनन करे। पिछले कुछ वर्षों से भारतवर्ष में कुछ विषैली हवा चल रही है, सब अपनी-अपनी डंफली अपना-अपना राग गा रहे हैं। कुछ जातियाँ और कुछ लोग आपस में भिड़े जा रहे हैं, अपने-अपने स्वार्थ में अन्धों को यह नहीं सूझ रहा है कि जिसकी वजह से तुम्हें यह अस्तित्वं प्राप्त हुआ है और जुबान खुल रही है, जब वही खतरे में पड़ जायेगा, तब न तुम्हारी भाषा चलेगी और न धर्म । मुख्य रूप से देश में राष्ट्रीय एकता के अभाव के निम्न कारण हो सकते हैं –
प्रान्तीयता— प्रान्तीयता का विष धीरे-धीरे बहुत बढ़ता जा रहा है । बंगाली बंगाल की, मद्रासी मद्रास की, पंजाबी पंजाब की, गुजराती गुजरात की उन्नति चाहता है। उसे सम्पूर्ण राष्ट्र का न कोई ध्यान है और न अपना कोई दायित्व ही समझता है। किसी ने तमिलनाडु बना लिया है, तो किसी ने पंजाबी सूबा | भिन्न-भिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न सेनायें बनने लगी हैं ।
भाषायी उन्माद – भाषा के नाम पर दक्षिणी भारत में पिछले दिनों इतने भयानक उपद्रव हुए थे कि केन्द्रीय सरकार को भी अपना भाषा सम्बन्धी निर्णय बदलना पड़ा । राष्ट्रगीत तक को भी वे इसलिये नहीं गाते क्योंकि वह हिन्दी में है। कोई गीता के श्लोकों को और रामायण की चौपाइयों को मन्दिर में से इसलिए मिटा रहा है क्योंकि वे हिन्दी में हैं या हिन्दी वर्णमाला में। कोई उर्दू की आवाज बुलन्द कर रहा है, तो कोई पंजाबी की । स्वार्थ भावना में वृद्धि से आज का कुल ऐसा वातावरण हो गया है, कि स्वार्थी नागरिक केवल अपने तक ही सोचता है, अपना कल्याण और अपनी उन्नति ही उसका ध्येय है । न उसे देश की चिन्ता है और न राष्ट्र की। चाहे देश छिन्न-भिन्न होता हो या देश की एकता, पर वह अपनी झूठी प्रतिष्ठा कायम करने के लिये कुछ भी कर सकता है और कुछ भी बयान दे सकता है।
संकीर्ण मनोवृत्ति का आधिक्य – जनता में संकीर्ण विचारधारा बढ़ती जा रही है और व्यापक दृष्टिकोण का अभाव होता जा रहा है। यही कारण है कि भारतवर्ष की विश्व परिवार की भावना धीरे-धीरे अपने परिवार तक ही सीमित हो गई है। बहुत सोचा तो अपने प्रदेश की बात सोच ली । इससे आगे हम कुछ सोच भी नहीं सकते ।
राष्ट्र- प्रेम का नितान्त अभाव – राष्ट्रीय भावना एवं राष्ट्र के लिये जो लगन अंग्रेजों के शासनकाल से भारत में थी वह आज उतनी नहीं पायी जा रही है। उस समय प्रत्येक नागरिक के मुख पर केवल एक ही नारा था “हिन्दुस्तान हमारा है”। आज केवल मद्रास हमारा है, पंजाब हमारा है, उत्तर प्रदेश हमारा है। तात्पर्य यह है कि हम पहले अपने प्रदेश की और बाद में राष्ट्र की बात सोचने लगे हैं, जो बहुत घातक है ।
साम्प्रदायिकता का फिर से उभरना – साम्प्रदायिकता का विष देश में फिर से सिर उठाने लगा । कुछ साम्प्रदायिक नेता इसे उभारकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। श या अहित उनकी दृष्टि में नहीं है। यह स्थिति राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है । १९८८ में मेरठ, अहमदाबाद और बड़ोदरा (बड़ौदा) के दंगे इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
अलगाववादी प्रवृत्ति – पृथक्तावादी शक्तियों का बढ़ना इस दिशा में और खाई खोदना है। कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञ तथा कुछ पड़ौसी देश भारत को समृद्धिशाली देख नहीं पा रहे हैं। इसीलिए गोरखालैंड, नागालैंड, और खालिस्तान जैसी समस्यायें देश को विकास के मार्ग से हटाने के लिए प्रयत्नशील हैं। ये प्रवृत्तियाँ घातक हैं। इस देश की धरती पर रहने वालों को यह स्वयं सोचना चाहिये ।
वास्तव में, बात यह है कि अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में साम्प्रदायिकता के जो जहरीले बीज बो दिये थे, जिन्होंने पाकिस्तान के रूप में फल तो दिया ही, परन्तु उनके अंकुर आज भी भारतवर्ष में फूट आते हैं। मोरारजी देसाई ने २०, २१, २२ जून, ६८ में हुए राष्ट्रीय एकता परिषद् के अधिवेशन में कहा था- “जहाँ तक मुझे याद है देश में १८६५ से पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए। इस देश में सदियों से विभिन्न धर्मों के लोग मिलकर रहते आये हैं, किन्तु केवल अंग्रेजों के शासनकाल में ही, कांग्रेस पार्टी बनने के बाद हिन्दू-मुस्लिम दंगे शुरू हुए। ऐसा उनके आपसी मतभेदों के कारण हुआ लेकिन इसका लाभ ब्रिटिश सरकार ने उठाया कभी उन्होंने हिन्दुओं का समर्थन किया, कभी मुसलमानों का और कभी ईसाइयों का । अन्त में विभाजन हुआ। अगर हम इस विभाजन को स्वीकार न करते, तो अंग्रेज अपने को बनाये रखते, क्योंकि हम मुसलमानों के लिए अलग मताधिकार स्वीकार कर चुके थे और हरिजनों को भी अलग मताधिकार देना चाह रहे थे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वे कुछ और क्षेत्रों कुछ और समुदायों के लिए अलग मताधिकार की बात भी सोचते एवं और अधिक कठिनाइयाँ उत्पन्न करते । ”
राष्ट्रीय एकता के लिए समय-समय पर अनेकों प्रयास किये गये । अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने इस एकता के लिए अपने प्राणों तक की बलि चढ़ा दी । श्रद्धानन्द का दिन दहाड़े दिल्ली के बाजार में बलिदान हुआ। महात्मा गाँधी का पूर्ण जीवन राष्ट्रीय एकता के लिए रहा । वे एक-एक महीने का उपवास केवल एकता के लिए ही करते थे । गली-गली में “हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई” के नारे लगाते थे । अन्त में उनका बलिदान भी राष्ट्रीय एकता के लिए ही हुआ । स्वतन्त्रता के १८ वर्षों में पं० जवाहर लाल नेहरू ने भी अपने अथक प्रयासों से इस दिशा में आगे बढ़ने का प्रयत्न किया। परन्तु स्थिति जहाँ की तहाँ रही । यह दूसरी बात है कि भारत की जनता पं० नेहरू से बेहद प्यार करती थी इसलिए उनकी बात मान ली जाती थी । चीनी आक्रमण के समय पं० नेहरू ने राष्ट्रीय एकता परिषद् की स्थापना की, उससे लक्ष्य सिद्धि भी हुई। देश में अभूतपूर्व भावात्मक एकता का वातावरण बना। उसके बाद एकता परिषद् को भंग कर दिया गया । शास्त्री जी ने भी अपने नैतिक चरित्र से इस दिशा में प्रयास किया पर स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इस स्थिति को संभालने की बड़ी कोशिश की, वे केवल एक महिला प्रधानमन्त्री मात्र ही नहीं थीं उनमें अपने पिता का ओज और चातुर्य भी था। उन्होंने स्थिति को पहचाना और कठोरता से नियन्त्रण में लाने के लिये कार्य शुरू कर दिया । २०, २१, २२ जून १९६८ में उन्होंने पुनर्गठित राष्ट्रीय एकता परिषद् का सम्मेलन बुलाया। जिसमें कुछ केन्द्रीय मंत्रीगण, सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री, सभी विपक्षी दलों के नेता व देश के विभिन्न नेताओं को आमन्त्रित किया गया। तीन दिन के अधिवेशन के बाद साम्प्रदायिकता को कुचलने के लिए महत्वपूर्ण निर्णय किये गये। उन्हें अमलीजामा पहनाने के लिये कानून बनाये गये । गृहमन्त्री चहाण तथा श्री मोरारजी देसाई ने तो यह स्पष्ट कह दिया कि इन सुझावों का देश में कठोरता से अनुपालन कराया जायेगा । मोरारजी ने तो यहाँ तक कहा कि- “जब सरकार साम्प्रदायिकता को समाप्त करने में असफल रहे, तो उसे भी सजा मिलनी चाहिये और जिम्मेदार मन्त्री को पद त्याग करना चाहिए।” एकता परिषद् के निर्णय और प्रस्तावों का क्या परिणाम निकला, यह आपके समक्ष है ।
जब किसी देश में विघटनकारी और विध्वंसात्मक तत्वों को कठोरता से काट में नहीं ल जाता है, तो देश छिन्न-भिन्न हो जाता है, अराजकता सर्वत्र छा जाती है। उस पर फिर आक्रमण होने शुरू हो जाते हैं और वह एक-एक करके पराधीन होता चला जाता है। इसलिए हमें भी पूर्ण समझदारी से काम लेना चाहिये जिससे जो स्वतन्त्रता हमने इतनी कठिनाइयों के बाद प्राप्त की है, वह सदा बनी रहे। यद्यपि भारतीय संविधान निर्माताओं ने, यही जानते हुए कि भारत में विभिन्न धर्मों के अनुयायी, विभिन्न जातियों के तथा विभिन्न भाषायें बोलने वाले लोग रहते हैं, यह देश बिना धर्म-निरपेक्षता के छिन्न-भिन्न हो जायेगा, विभिन्न वर्गों को एक सूत्र में बाँधने के लिये भारत को धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्र गणराज्य घोषित किया, पारस्परिक असमानता और असहिष्णुता को दूर करने का यही एकमात्र उपाय था। भारत में सब धर्मों के लोगों को भारतीय नागरिक के रूप में आज पूरे अधिकार प्राप्त हैं और वे राष्ट्र के अभिन्न अंग हैं, जबकि इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को अधिक से अधिक दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है। भारत में सब नागरिकों को प्रत्येक पद पाने का अधिकार है। देश का सबसे बड़ा राष्ट्रपति का पद किसी भी नागरिक को प्राप्त हो सकता है। विदेशों में अनेक वरिष्ठ राजनीतिक पदों पर सब धर्मों के लोग हैं। देश की सशस्त्र सेनाओं में कोई धार्मिक भेदभाव नहीं । फिर भी हाय-हाय साम्प्रदायिकता, झगड़े, आगजनी और लूटमार ।
उधर कुछ राज्य पृथक्तावादी विचारधारा से ओत-प्रोत होकर अपना अलग ही राग अलाप रहे हैं। यह सब गलत दिशा में पदन्यास है। प्रत्येक राज्य को यह समझना चाहिये कि वह भारत संघ गणराज्य का आवश्यक अंग है उसे अपने राज्य की प्रगति में चाहे कितनी रुचि है, पर उसे यह न भूलना चाहिये कि प्रत्येक राज्य की प्रगति अन्ततः सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति से ही सम्बन्धित ।
अतः प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि राष्ट्रीय एकता की प्राप्ति में अपने दायित्व का निर्वाह करे। सत्तारूढ़ और सत्ताहीन सभी राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों को सभी नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने का प्रयास करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह संकीर्ण विचारों को छोड़कर समूचे राष्ट्र के लिए सोचे, मनन करे और उसकी समृद्धि के लिए प्रयत्न करे । यदि समय रहते हुए इस दिशा में ठोस कदम न उठाये तो देश अनेक टुकड़ों में बिखर जायेगा, इसीलिए बुद्धिमानी इसी में है कि समय रहते सभी को जाग जाना चाहिये। अतः सशक्त और समृद्ध राष्ट्र निर्माण के लिये राष्ट्रीय एकता नितान्त आवश्यक है।
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