भारत धर्म – निरपेक्ष राज्य

भारत धर्म – निरपेक्ष राज्य

          एक समय था जबकि विश्व के जीवन पर धर्म तथा धार्मिक अन्धविश्वासों का अबाध  साम्राज्य था । मानव जीवन का कोई भी पदन्यास ऐसा नहीं था, जिसमें धर्म का हस्तक्षेप न हो । व्यक्तिगत  पर भी धर्म का पूर्ण प्रभुत्व था। यूरोप में सबसे बड़ा धर्माधिकारी पोप होता था। उसकी सत्ता सर्वोपरि होती थी। राजाओं के राज्याभिषेक और उनकी अपदस्थता उनकी इच्छा मात्र होती थी। सुना जाता है कि वह ईश्वर से मिलने और स्वर्ग में जाने के टिकट भी दिया करता था। यूरोप में कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट धर्मावलम्बियों में बहुत समय तक संघर्ष चलता रहा और वे एक-दूसरे को विनष्ट करने का प्रयत्न करते रहे। राज्य-धर्म महान् धर्म समझा जाता है। राजा की विवशतापूर्वक भक्त बनाई गई प्रजा उसी धर्म की स्वीकार करती थी, जिसे राजा स्वीकार करता था और यदि कोई स्वतन्त्र विचारक उस धर्म का अनुयायी होने में आना-कानी करता था, तो उसकी डण्डे से खबर ली जाती थी, वह राजद्रोह का अपराधी घोषित किया जाता था। इंग्लैण्ड के राजा प्रोटेस्टेण्ट मतावलम्बी थे, वहाँ की प्रजा भी विवशतापूर्वक उसी धर्म को मानकर जीवित रहती थी। फ्रांस तथा स्पेन के राजा कैथोलिक थे तो प्रजा भी कैथोलिक थी। “यथा राजा तथा प्रजा” की कहावत शत-प्रतिशत चरितार्थ होती थी। यही दशा भारतवर्ष की थी, विजेता मुसलमानों ने यहाँ तलवार के बल पर अपना धर्म फैलाया। हिन्दू तथा मुसलमानों में धर्म के आधार पर बहुत समय तक संघर्ष चलता रहा। अशोक बौद्ध धर्म में दीक्षित था, अतः बौद्ध धर्म को राज धर्म कहा जाता था और राज्य द्वारा समस्त भारत में उसका प्रचार किया जाता था। अंग्रेजों ने लगभग दो शताब्दी तक भारत में राज्य किया। वे भारतीय भोली जनता को ईसाई बनाने में न चूके, स्थान-स्थान पर धर्म केन्द्र खोले गये, दरिद्र जनता को अभावों की पूर्ति का प्रलोभन देकर उन्हें ईसाई बनाया गया, इस प्रकार जब तक विश्व में राजाओं, सामन्तों और धर्म गुरुओं का प्रभुत्व काल रहा, तब तक राजनीति पर धर्म का भी आधिपत्य बना रहा। धर्म की सहायता से राज्य वृद्धि भी होती रही और राज्य की सहायता से धर्म प्रचार भी होता रहा ।
          युग बदला, चारों ओर परिवर्तन की पुकार सुनाई पड़ने लगी, समय ने करवट ली और अंगडाई लेकर उठ बैठा । व्यक्तिगत प्रभुत्व की प्रचण्ड अग्नि का स्थान प्रजातन्त्र की लहरों ने ग्रहण किया | युगों की संत्रस्त और संतप्त जनता ने शान्ति की सांस ली । मानवता का खोया हुआ शृंगार उसे फिर मिलने लगा। एक-एक करके राज्य शक्तियाँ समाप्त होने लगीं। बहुत दिनों की हाथों से छूटी शासन की बागडोर जनता के हाथों में फिर आने लगी । राजनीति व धर्म का सम्बन्ध धीरे-धीरे पृथक् होने लगा । विचारकों ने स्वीकार किया कि धर्म मनुष्य की निजी सम्पत्ति है, इसका राज्य शासन से कोई सम्बन्ध नहीं । व्यक्ति जिस धर्म को चाहे स्वीकार कर सकता है और जिस धर्म को चाहे छोड़ सकता है, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है, उसमें हस्तक्षेप करने का किसी को भी अधिकार नहीं होना चाहिये ।
          धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त है कि धर्म किसी एक व्यक्ति की वस्तु नहीं है। उसमें किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिये । प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतन्त्रता होनी चाहिये कि वह चाहे जिस धर्म का अवलम्बन करे। राज्य का अपना कोई धर्म न हो और राज्य अपनी सीमाओं में रहने वाले सभी मतावलम्बियों की समान रूप से रक्षा करे। यूरोप में इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में भी कठिनाई उठानी पड़ी । भारतवर्ष तो प्रारम्भ से ही उदार और सहिष्णु है। यहाँ के विद्वानों ने स्वयम् अपने धर्म का पालन करते हुए कभी दूसरे के धर्म को हेय दृष्टि से नहीं देखा । अशोक यद्यपि स्वयं बौद्ध था, परन्तु भारत के अन्य धर्मावलम्बियों से घृणा नहीं करता था, अपितु प्रजा के समस्त धर्मों का समान रूप से संरक्षण करता था। भारतवर्ष में अंग्रेजों का पदार्पण हुआ। सन् १८५७ में हिन्दू-मुसलमान दोनों जातियों ने अंग्रेजों से डटकर टक्कर ली । परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों के पैर उखड़ गये। उस भयानक विद्रोह को अंग्रेज जाति ने किसी तरह दबाया, परन्तु यह निश्चय कर लिया कि इन दोनों जातियों को कभी एक न होने दिया जाए, तभी यहाँ राज्य करना सम्भव हो सकता है। पार्थक्य वृद्धि के लिए धर्म का ही आधार सबसे सरल था । अंग्रेज धर्म की आड़ लेकर भारतीय जनता से खेल खेलने लगे। अंग्रेजों की कूटनीतियों ने दोनों जातियों के बीच में वह खाई खोदी, जो कभी न भर सकी। महात्मा गाँधी ने आजीवन दोनों जातियों को पास लाने का भगीरथ प्रयत्न किया, परन्तु वे भी पूरी तरह सफल न हो सके। स्वाधीनता संग्राम उत्तरोत्तर बढ़ता गया। देश के समस्त अंचलों से असंख्य नर-नारी त्रिदेशी शासन को भयंकर भार समझकर उसे उतार फेंकने के लिए कटिबद्ध हो गये। अन्त में अंग्रेजों को जाना पड़ा।
          स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतवर्ष ने अपने को एक धर्म निरपेक्ष राज्य उद्घोषित किया । भारत की सीमाओं में निवास करने वाले सभी नागरिकों को यह आश्वासन दिया गया कि वे अपने-अपने धार्मिक क्षेत्रों में पूर्णतया स्वतन्त्र हैं, उनके धर्म के सम्बन्ध में उनके ऊपर कोई भी प्रतिबन्ध नहीं होगा। राजकीय सेवाओं व राजनीतिक सम्बन्धों में किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं किया जाएगा। इस धर्म-निरपेक्षतापूर्ण उद्घोषणा से भारत का अन्य महान् राष्ट्रों की दृष्टि में सम्मान बढ़ा । विदेशी कूटनीतिज्ञों ने भारतीय प्रजातन्त्र प्रणाली की भूरी-भूरी सराहना की, जबकि पाकिस्तान एक कूपमण्डूक की भाँति प्रजातंत्र को कभी ऊपर उछालता है और कभी नीचे गिराता है। पाकिस्तान की धर्म सापेक्षता के कारण ही आज वहाँ के असंख्य नर-नारियों का भीषण संहार होते हुये भी बांग्ला- देश का निर्माण हुआ । आज भारतीय सरकार धर्म निरपेक्षता के नियम का बड़ी तत्परता के साथ पालन कर रही है। पग-पग पर देखा जाता है कि कहीं अल्पसंख्यकों के हितों की हानि न हो जाये या उन्हें कोई धार्मिक ठेस न पहुँचे। सरकार अपने लोकतन्त्रात्मक नियमों का कठोरता से पालन करती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतीय सरकार ने देश की उन्नति के लिए कोई कदम बाकी उठा नहीं रखा।
          भारतीय संविधान २६ जनवरी, १९५० से लागू कर दिया गया था। इस संविधान में धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है । इस धारा के अनुसार भारत का प्रत्येक नागरिक धार्मिक विश्वासों के सम्बन्ध में स्वतन्त्र है और सभी भारतीय नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकार प्राप्त हैं। धार्मिक वैभिन्नय को समूल समाप्त कर देने के लिए पृथक् मताधिकार प्रणाली को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार प्रणाली आरम्भ कर दी गई है। पहले मुसलमान, मुसलमान प्रतिनिधि का निर्वाचन करता था और हिन्दू, हिन्दू प्रतिनिधि का, परन्तु अब सामाजिक रूप से निर्वाचन होता है और वही व्यक्ति विजयी हो पाता है, जिसको सभी वर्गों और सम्प्रदायों के अधिकतम मत प्राप्त हों । धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से देश में पारस्परिक द्वेष, वैमनस्य, ईर्ष्या और कलह शान्त होते जा रहे हैं। जनता में परस्पर सौहार्द और सद्भावनाएँ उत्पन्न हो गई हैं। एक समय आएगा, जबकि देश में अवशिष्ट मत वैभिन्नय भी सर्वदा के लिए समाप्त हो जायेगा। वैसे भी प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में धर्म निरपेक्षता का महत्वपूर्ण स्थान है। धर्मनिरपेक्षता के अभाव में कोई भी प्रजातन्त्र सफल और श्रेष्ठ प्रजातन्त्र नहीं कहा जा सकता ।
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